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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

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 आयुर्वेद के महान 5 चिकित्सक और जानिए कैसे होती है चिकित्सा

आयुर्वेद मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे आरंभिक चिकित्‍सा शाखा है। प्राकृतिक चिकित्सा इसका एक अंग मात्र है। आयुर्वेद का जन्म भारत में हुआ। इसके सूत्र हमें ऋग्वेद और अथर्ववेद में मिलते हैं। आयुर्वेद के जनक और आयुर्वेद के मूल सिद्धांत को जानिए।

आयुर्वेद के जनक : आयुर्वेद के जनक : 1.अश्विनीकुमार 2.धन्वंतरि, 3.चरक, 4.च्यवन, 5.सुश्रुत। इसके अलावा ऋषि अत्रि, भारद्वाज, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अथर्व, अत्रि तथा उनके छः शिष्य अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत और बागभट्ट भी आयुर्वेद के जानकार थे। इसमें से बागभट्ट ने आयुर्वेद को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।


धन्वंतरि, चरक, च्यवन, सुश्रुत और बागभट्ट को आयुर्वेद को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय जाता है। अथर्ववेद में आयुर्वेद के कई सूत्र मिल जाएंगे। धन्वंतरि, चरक, च्यवन और सुश्रुत ने विश्व को पेड़-पौधों और वनस्पतियों पर आधारित एक चिकित्साशास्त्र दिया। भारत में सुश्रुत को पहला शल्य चिकित्सक माना जाता है। आज से करीब 2,600 साल पहले सुश्रुत युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनके अंग-भंग हो जाते थे या नाक खराब हो जाती थी, तो उन्हें ठीक करने का काम करते थे। सुश्रुत ने 1,000 ईसापूर्व अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, हड्डी जोड़ना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए थे।

आयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है। ऋषि चरक ने 300-200 ईसापूर्व आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ 'चरक संहिता' लिखा था। उन्हें त्वचा चिकित्सक भी माना जाता है। आचार्य चरक ने शरीरशास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरणशास्त्र, औषधिशास्त्र इत्यादि विषय में गंभीर शोध किया तथा मधुमेह, क्षयरोग, हृदय विकार आदि रोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान को बताया।

चरक एवं सुश्रुत ने अथर्ववेद से ज्ञान प्राप्त करके 3 खंडों में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे। उन्होंने दुनिया के सभी रोगों के निदान का उपाय और उससे बचाव का तरीका बताया, साथ ही उन्होंने अपने ग्रंथ में इस तरह की जीवनशैली का वर्णन किया जिसमें कि कोई रोग और शोक न हो। आठवीं शताब्दी में चरक संहिता का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह शास्त्र पश्चिमी देशों तक पहुंचा। चरक और च्यवन ऋषि के ज्ञान पर आधारित ही यूनानी चिकित्सा का विकास हुआ।

इसी तरह पांचवीं सदी में बागभट्ट नामक महान आयुर्वेदाचार्य हुए। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'अष्टांग हृद्या संहिता' और अष्टांगसंग्रह है। अष्टांगसंग्रह के अनुसार इनका जन्म सिंधु देश में हुआ। इनके पितामह का नाम भी वाग्भट था। इनके पिता का नाम सिद्धगुप्त था। ये अवलोकितेश्वर गुरु के शिष्य थे।

आयुर्वेद का आविष्‍कार भी ऋषि-मुनियों ने अपने मोक्ष मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए ही किया था लेकिन बाद में इसने एक चिकित्सा पद्धति का रूप ले लिया।

आयुर्वेद के मूल सिद्धांत
1. आयुर्वेद प्रकृति के अनुसार जीवन जीने की सलाह देता है।

2. सेहतमंद बने रहकर मोक्ष प्राप्त करना ही भारतीय ऋषियों का उद्देश्य रहा है।

3. आयुर्वेद कहता है कि 'पहला सुख निरोगी काया'।

4. आयुर्वेद मानता है कि हमारी अधिकतर बीमारियों का जन्म स्थान हमारा दिमाग है। इच्छाएं, भाव, द्वेष, क्रोध, लालच, काम आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों से कई तरह के रोग उत्पन्न होते हैं।

5. आयुर्वेद के अनुसार भोजन को यदि उत्तम भावना और प्रसन्नता से पकाकर और उसी भावना से खाया जाए तो वह अमृत के समान गुणों का हो जाता है।

6.आयुर्वेद के अनुसार भोजन के लगभग 1 घंटे बाद पानी पीने से खाए गए भोजन का लाभ मिलता है और व्यक्ति निरोगी भी रहता है।

7. त्रिदोष: आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शारीर में तीन जैविक-तत्व होते हैं जिन्हें त्रिदोष कहा जाता है। शारीर के भीतर इन तीन तत्वों का उतार-चढ़ाव लगा रहता है। इनका संतुलन गड़बड़ाने या कम ज्यादा होने से रोग उत्पन्न होते हैं। यह तीन दोष हैं- वात (वायु तत्व) पित्त (अग्नि तत्व) और कफ। वात के 5 उपभाग है 1- प्राण वात, 2- समान वात, 3- उदान वात, 4- अपान वात और 5- व्‍यान वात। पित्त के भी 5 उपभाग है 1- साधक पित्‍त, 2- भ्राजक पित्‍त, 3- रंजक पित्‍त, 4- लोचक पित्‍त और 5- पाचक पित्‍त। इसी तरह से कफ के भी 5 उपभाग है- 1- क्‍लेदन कफ, 2- अवलम्‍बन कफ, 3- श्‍लेष्‍मन कफ, 4- रसन कफ और 5- स्‍नेहन कफ।

आयुर्वेद के आठ अंग
1. काया चिकित्सा : इसमें शरीर को औषधि प्रदान की जाती है।
2. काउमारा भर्त्य : इसमें बच्चों की चिकित्सा की जाती है।
3. सल्यतंत्र : इसमें सर्जरी की जाती है।
4. सलाक्यतंत्र : कान, नाक, आंख और मुंह के रोगों के लिए चिकित्सा।
5. भूतविद्या : मानसिक विकारों के लिए चिकित्सा।
6. अगदतंत्र : विष या जहर आदि के लिए चिकित्सा।
7. रसायनतंत्र : विटामिन और पोषक तत्वों से संबंधी चिकित्सा।
8. वाजीकरणतत्र : यौन सुख से जुड़ी समस्या संबंधी चिकित्सा।

आयुर्वेद के पंचकर्म:- इसके मुख्‍य प्रकार बताएं जा रहे हैं परंतु इसके उप प्रकार भी है। यह पंचकर्म क्रियाएं योग का भी अंग है।

1. वमन क्रिया : इसमें उल्टी कराकर शरीर की सफाई की जाती है। शरीर में जमे हुए कफ को निकालकर अहारनाल और पेट को साफ किया जाता है।

2. विरेचन क्रिया : इसमें शरीर की आंतों को साफ किया जाता है। आधुनिक दौर में एनिमा लगाकर यह कार्य किया जाता है परंतु आयुर्वेद में प्राकृतिक तरीके से यह कार्य किया जाता है।

3. निरूहवस्थी क्रिया : इसे निरूह बस्ति भी कहते हैं। आमाशय की शुद्धि के लिए औषधियों के क्वाथ, दूध और तेल का प्रयोग किया जाता है, उसे निरूह बस्ति कहते हैं।

4. नास्या : सिर, आंख, नाक, कान और गले के रोगों में जो चिकित्सा नाक द्वारा की जाती है उसे नस्य या शिरोविरेचन कहते हैं।

5. अनुवासनावस्ती : गुदामार्ग में औषधि डालने की प्रक्रिया बस्ति कर्म कहलाती है और जिस बस्ति कर्म में केवल घी, तैल या अन्य चिकनाई युक्त द्रव्यों का अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाता है उसे अनुवासन या 'स्नेहन बस्ति कहा जाता है।


आपकी बीमारी का मूल कारण जानने का आयुर्वेदिक रहस्य
आयुर्वेद का तात्पर्य है जीवन के भौतिक, मौलिक, मानसिक और आत्मिक ज्ञान । यह विज्ञान और स्वस्थ जीवन जीने की कला का सटीक संयोजन है।
आयुर्वेद यह मानता है कि ब्रह्मांड में सब कुछ पांच महान तत्वों (पंच महाभूतों) - आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से बना है। यह स्वस्थ शरीर और मस्तिष्क के लिए इन तत्वों को संतुलित रखने के महत्व को समझाता है।
आयुर्वेद तीन मूल प्रकार के ऊर्जा या कार्यात्मक सिद्धांतों की पहचान करता है जो हर किसी इंसान और हर चीज में मौजूद हैं। इसे त्रिदोष सिद्धांत कहते है।  जब ये तीनों दोष - वात, पित्त और कफ  (Vata, pitta, kapha) संतुलित रहते हैं तो शरीर स्वस्थ रहता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रकृति के कारण और कुछ तत्वों से अधिक प्रभावित होता है, जिसे तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है:
वात दोष - जहां वायु और अंतरिक्ष तत्व हावी होते हैं
पित्त दोष - जहां अग्नि तत्व हावी है
कफ दोष - जहां पृथ्वी और जल तत्व हावी हैं

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