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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

#नाड़ी देखने के विधान, #अष्टविध परीक्षा , #Pulse viewing, #Octave test

 एक कुशल वैद्य को स्वस्थ पुरुष की नाड़ी का ज्ञान होना आवश्यक है । जिससे कि वह रोगियों के नाड़ी की तुलना कर सकें । विभिन्न समयों में एवं विभिन्न परिस्थितियों में स्वस्थ की देखी गई नाड़ी के अध्ययन करने से वैद्य नाड़ी का ज्ञाता बन जाता है ।
  जैसा कि भूधर ने लिखा है
" स्पर्शनादिचिराभ्यासात् नाड़ीज्ञोजायते भिषक ।
तस्मात्परामृरोनाडीं सुस्थानामपि देहिनाम् ।।"
श्री रावण ने " नाड़ी परीक्षा " में लिखा है ।
" मूलता गमनप्राया स्वस्छा स्वास्थमयी सिरा ।
सुस्थितस्य स्थिरा ज्ञेया तथा बलवती भवेत् ।।
स्वस्थ की नाड़ी स्थिर गति से चलती है । बलवान और स्वस्छ होती है , इसकी तुलना केंचुआ की गति से की जा सकती है । इसकी गति में न तीब्रता होती है न मंदता होती है । इसमें अन्य विजातीय वस्तु मल इत्यदि का वहन भी नहीं होता है ।
" शारंगधर संहिता "में उत्तम नाड़ी के लक्षण के संबंध में लिखा है :-
" लध्वी बहति दीप्तग्नेस्तथा वेगवती भवेत् ।
सुखितस्य स्थिरा तथा बलवती मता।
चपला क्षुधितस्यापि तृप्तस्य वहति स्थिरा ।
अर्थात जिस पुरुष की जठराग्नि प्रदीप्त होती है उसकी नाड़ी स्थिर और बलवती होती है । भूखे मनुष्य की नाड़ी चंचल होती है जो भोजन कर चुका होता है उसकी नाड़ी स्थिर होती है ।
दोष रहित नाड़ी :-- स्वस्थ की नाड़ी के संदर्भ में दोष रहित नाड़ी की भी जानकारी आवश्यक है ।क्यो कि सभी रोगों का संबंध दोषों से है । विभिन्न प्रकार के रोगों की नाड़ियों में दोषों की विभिन्न अवस्थायें प्राप्त होती है। साधारण स्वास्थवस्था की नाड़ी में दोषों की वृद्धि, हास , कोप और प्रसार इत्यादि विशेष रूप से नहीं प्राप्त होते हैं । समयानुसार दोष की अपेक्षा कृत वृद्धि आवश्य होती है ।
रोगों के कारक दोषों से रहित नाड़ी को निर्दोष नाड़ी कहते हैं । यदि अंगुष्ठ के उपर मणिबंध में अंगुष्ठ मूलीय धमनी में एक गति से नाड़ी बहती है तो उसे निर्दोष नाड़ी कहते हैं । जैसा कि श्री रावण ने कहा है ।
" अंगुष्ठादूर्ध्वसंलग्ना समा च बहते यदि ।
निर्दोष: सा च विज्ञेया नाड़ी लक्षण कोविदै: ।।
शुभ नाड़ी :---
    " वसवराजीयम्" में वर्णित है ।
" सुव्यक्ता निर्मलत्वं स्वस्थान स्थितरेव च ।
अघांचल्य मंदत्यं सर्वासां शुभलक्षणम् ।
नाड़ियों का भली भांति स्पष्ट होना , अपने स्थान पर स्थित होना अचांचल्य ,अमंदता शुभ है ।

 

स्वस्थ नाड़ी का ध्याम :--- हृदय के बांयें आक्षेपक के संकोच से जितना रक्त धमनियों में आता है उस रक्त की लहर से घमनियों में उभार उत्पन्न होता है । लहर के आगे बढ़ने पर उभार उभार समाप्त हो जाता है । और धमनी अपने स्थिति में आ जाती है । पुनः आक्षेपक कोष्ठ के संकोच से रक्त में दूसरी लहर उत्पन्न होती है । दो उभारों के बीच में सर्वथा धमनी अपनी स्थिति में आ जाती है । ये उभार ही नाड़ी परीक्षा में स्पर्श से अनुभव करता है । इनको ही ध्याम, स्पन्दन , स्फुरण , कहते हैं ।

 

" नाड़ी देखने का उपयुक्त समय "
महर्षि कणाद ने "नाड़ी विज्ञान " में लिखा है ।
प्रात: कृतसमाचार: कृताचार परिग्रह:।
सुखासीनं: सुखासीनं परिक्षार्थमुपाचरेत् ।
नाड़ी देखने का सवसे उत्तम समय प्रात: काल से लेकर एक प्रहर तक है । क्योंकि रात भर विश्राम करने से शरीर स्वभाविक स्थिति में होता है । मलमूत्र त्याग कर ने से पेट खाली रहता है । भूख प्यास का भी वेग नहीं होता है । मानसिक भावनायें भी उद्दाम नहीं रहती है । चित्त में धैर्य और शांति रहती है । अतः उस समय रोग की स्वभाविक अभिव्यक्ति नाड़ी के द्वारा हो सकती है ।
  उस समय वैद्य भी अपेक्षा कृत अधिक शांत और सचेष्ट रहता है वैद्य की बुद्धि भी उस समय अधिक विकसित होती है ।
   आपतकाल में किसी आवश्यकता के अनुसार कभी भी नाड़ी देखी जा सकती है । और देखना चाहिएं ।
  पूर्णिमा को ही समुद्र में ज्वार आता है , कमल प्रातःकाल खिलता है शाम को मुर्झा जाता है अतः आयुर्वेद में किसी भी कार्य करने के लिए दिन ग्रह नक्षत्र की मान्यता रोगी , औषधि , और वैद्य के लिए है । आपातकालीन अनिवार्यता ना हो तो नाड़ी परिक्षा का दिन सोमवार ( चंद्र अमृत )और उसके बाद सोम सुत बुद्धवार श्रेष्ठ  है नाड़ी की परिक्षा सामान्य अवस्था में वैद्य को इसी दिन करना चाहिए ।
प्रात: स्नग्धमयी नाड़ी मथ्याये च उष्णता भवेत् ।
सायं काले धावमाना च रात्रौ वेगविवर्जिता
निरोगावस्था में नाड़ी प्रात: काल में स्निग्ध दोपहर में उष्ण तथा रात में विश्राम के कारण कम वेग होता है ।
  निषिद्ध समय और परिस्थितियां:-- किसी भी प्रकार के कार्य का प्रभाव नाड़ी पर पड़ता है । अतः रोग पहचानने के लिए कार्यो के प्रभाव से नाड़ी का मुक्त रहना आवश्यक है । स्नान , भोजन , मैथुन के बाद , निद्रावस्था में , भूख , प्यास लगने पर रोते हुए, क्रोधित हुए समय नाड़ी ज्ञान सम्यक नहीं हो पाता है । भूतावेष में , मदिरापानजन्य में , मतिभ्रम में , अपस्मार में , थकी देह में , अभ्यंग के बाद में भी नाड़ी ज्ञान सही नहीं होता है ।
भुक्तस्य सद्य:स्नातस्य निद्रितस्योपवासिन: ।
व्यवायभ्रान्तदेहस्य भूतावेशित रोंदने ।।
सुन्दरीणां संयोगे च मद्यपाने मतिभ्रमे । अपस्मारे श्रान्त देहे नाड़ी सम्यक न बुथ्यते ।।

 

नाड़ी देखने के अयोग्य रोगी :---
धूर्त मार्गस्थ विश्वास रहित अज्ञात गोत्रिणाम् ।
विनाभिशंसनं वैद्यों नाड़ी द्रष्टा च किल्विपी ।।
नाड़ी दर्पण में लिखा है कि क्षुधा प्यास निद्रा तंद्रा मलमूत्रादि वेग से युक्त भरपेट भोजन किया हुआ, मार्ग में स्थित , घूर्त, विश्वास रहित , जो वैद्य की परीक्षा लेने के लिए आया हो , अज्ञात कुल शील का हो , जब तक रोगी या उसके संरक्षक नाड़ी देखने के लिए न कहें वैद्य को नाड़ी नहीं देखना चाहिए । अन्यथा वैद्य पाप का भागी होता है ।
  " रिक्तपाणी न पश्येद् दैवज्ञं भिषजं गुरुं "
अर्थात ज्योतिषी , वैद्य, गुरु को खाली हाथ नहीं देखना चाहिए । समय, साधन , सुविधा के अनुसार उसके पास उपहार , पुरस्कार, मानदेय लेकर ही जाना चाहिए । कुछ न हो तो उनके सम्मान में पत्र पुष्प लेकर जो उसकी कृपणता ( कंजूसी ) का द्योतक न हो कर श्रद्वा का प्रतीक हो लेकर जाना चाहिए । वैद्य को भी आपातकाल या अनिवार्यता रोगी की मजबूरी को छोड़कर सामान्य परिस्थितियों में खाली हाथ रोगी को नहीं देखना चाहिए ।

 

नाड़ी देखने के योग्य रोगी :---
नाड़ी दिखलाने के समय में रोगी के मन में काम, क्रोध , मद ,मत्सर आदि का भाव रोगी के मन में नहीं होना चाहिए क्योंकि मनोभावों का भी प्रभाव नाड़ी पर पड़ता है । रोगी को भी मल , मूत्र , निद्रा , क्षुधा तृषा के वेग से मुक्त होना चाहिए । जैसा कि नाड़ी दर्पण में लिखा है ।
" त्यक्तमूत्रपूरीषस्य , सुखासीनस्थ रोगिण:।
अंतर्जानुकरस्यापि
नाड़ी सम्यक प्रबुध्यते।
अर्थात मल मूत्र के वेग से निवृत्त होकर खाली पेट स्वभाविक स्थिति में शान्ति पूर्वक वैद्य के समक्ष नाड़ी दिखाने के लिए बैठना चाहिए । तभी वैद्य को रोगी रोग के बारे में नाड़ी से पता चलता है

 

शब्द परीक्षा यानी आवाज से रोगी की पहचान:-
क)  रोगी की आवाज में भारीपन हो तो - कफ रोग का कारण है।
ख) रोगी की आवाज बिल्कुल साफ हो तो - पित्त रोग का कारण है।
ग) रोगी की आवाज घर घर कर रही हो तो - वादी / वात रोग का कारण है।
घ)  रोगी की आवाज मोटी, आवाज में भारीपन हो तो - रोगी को जुकाम लगा है।
ड) रोगी पूरी तरह बोल नहीं पा रहा है, आवाज टूटी हुई है तो - मेद बड़ा हुआ है।
च) रोगी नाक से बोल रहा हो, तालू गल रहा हो तो - उपदंश से पीड़ित है। 


अष्टविध   परीक्षा
शास्त्रों में रोग परीक्षा के आठ विधानों का वर्णन किया गया है, जिनको अष्टविध परीक्षा कहा जाता है। इसके निम्न प्रारूप हैं।
१ - स्पर्श परीक्षा
२ - शब्द परीक्षा
३ - आकृति ( चेहरे से रोग की पहचान) परीक्षा
४ - नेत्र परीक्षा
५ - जिह्वा परीक्षा
६ - मल परीक्षा
७ - मूत्र परीक्षा
८ - नाड़ी परीक्षा
इन प्रभागों में से आज हम जानेंगे स्पर्श परीक्षा यानी रोगी के शरीर की चमड़ी को छूकर रोगी को कोन सा दोष है यह पता करने को स्पर्श परीक्षा कहते हैं।
शरीर ठंडा हो और त्वचा खुरदुरी हो तो - वायु बड़ी हुए है।
शरीर  गरम हो, पर ज्वर ना हो तो - पित्त बड़ा हुआ है।
शरीर ठंडा हो, त्वचा चिपचिपी ओर चिकनी हो तो - कफ ब्दा हुआ है।
शरीर एकदम ठंडा, त्वचा सामान्य हो तो - शितांग सन्निपात।
शरीर आज की तरह धधक रहा हो, रोगी को लगे की जैसे वह आग की लपट से घिरा है , हो तो - अंतक शन्निपात।
शरीर में ज्वर हो, रोगी के पैर - हाथ गरम हों पर शरीर ठंडा हो तो - ऊष्मा पाणीपाद ज्वर।
अष्टविध परीक्षा में आज हमने जानने का प्रयास किया कि स्पर्श परीक्षा के कितने भाग हैं और उनको कैसे समझा जा सकता है।


रोग निदान की जो विस्तृत जानकारी आयुर्वेद के मनीषियों द्वारा प्रस्तुत की गई है, वाह विस्तारित व्याख्यान अन्यत्र उपलब्ध नहीं हो पाता है,हमारे ऋषियों ने जितना सूक्ष्म वर्णन किया है वह दुनिया की किसी भी चिकित्सा पद्धति में उपलब्ध नहीं है ।रोग को पहचानने के लिए प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में तीन प्रकार के साधन बतलाए गए हैं।
१- दर्शन परीक्षा
२- स्पर्श परीक्षा
३- प्रश्न परीक्षा
१- दर्शन परीक्षा में आंखों का रंग , चेहरा , शरीर की बनावट , श्वास रोग , मूत्र देखकर रोग की शी पहचान करना।
२- स्पर्श परीक्षा में बुखार की स्थिति, नाड़ी विज्ञान भी स्पर्श चिकित्सा के अन्तर्गत आता है। नाड़ी की सामान्य गति / धड़कन, ७२ / मिनट है,इस स्थिति में शरीर का तापमान भी सामान्य रहता है, सामान्यतः प्रति मिनट १०  धड़कन बढ़ने से १ डिग्री तापमान भी बढ़ जाता है शरीर का।परंतु  टायफाइड  जिसे आंत्र ज्वर भी कहते हैं में तापक्रम नाड़ी की गति की अपेक्षा अधिक होता है। टायफाइड में नाड़ी की गति ८४ होने पर ज्वर १०४ डिग्री होता है।
३- प्रश्न परीक्षा में मानसिक व्याकुलता,हिस्टीरिया, अपस्मार, श्वेटप्रदर आदि को जिन्हें आधुनिक मशीनों द्वारा नहीं जांचा परखा जा सकता है उं रोगों की जानकारी केवल प्रश्न द्वारा ही की का सकती है। इसमें रोगी से प्रश्न किया जाता है।
पंच निदान -
पंच निदान निम्न हैं।
१ - निदान हेतु - जिस कारण रोग पैदा हो। इसके निम्न भेद हैं।
क) वात बढ़ाने वाले- भोजन का अभाव,मैथुन, शोक, ठंड, वर्षा ऋतु,चिंता,भय, रुक्ष्य पदार्थ का सेवन।
ख) पित्त बढ़ाने वाले- तीक्ष्ण, अम्ल पदार्थ, क्रोध, तृष्णा, कड़वे पदार्थ, शरद ऋतु, धूप, चोट, भूख।
ग) कफ बढ़ाने वाले- चिकने पदार्थ, मीठे व्यंजन,बसंत ऋतु, ठंडे पेय या भोज्य पदार्थ।
२ - पूर्व रूप-जब लक्षण से रोग को पहचानने में दिक्कत आ रही हो, तब प्रश्न के द्वारा पूर्व रूप की जानकारी लेने से शंका का समाधान सहज हो जाता है, इसके २ भेद हैं,
क) सामान्य - दोषों की विशेषता रहित।
ख) विशेष - दोषों की विशेषता से युक्त पूर्व रूप।
३ - लक्षण- किसी प्रकार के रोग की पूर्व रूप की अपेक्षा रोग को बतलाने वाले रोग के जो लक्षण होते हैं उसे रूप या लक्षण कहा जाता है।
४ - उपशय- आहार विहार, ओषधि ,  जो रोगी की प्रकृति के अनुकूल हों ओर रोग शमन में सहायक भी, उन्हें उपशय या सत्म्य कहा जाता है, इसके भी ३ भेद हैं,
क) वायोपशय -अम्ल, लवण, मधुर, अभ्यंग, चिकने पदार्थ, नस्य, बस्ति, मर्दन, स्वेदन।
ख) पित्तोपशय - विरेचन, तिक्त,कषाय पदार्थ का सेवन,रक्त मोक्षण, शीतल प्रलेप।
ग) कफोपशय -  धूम्रपान, वमन, स्वेदन, रुक्ष, अति जल क्रिया , उपवास।
अनुपशय- उपशय के विपरित जिस आहार विहार ओर ओषधि  से रोगी को कष्ट बढ़ता है उसे अनुपशय कहते हैं।
५ - संप्राप्ति- रोग के संबंधित पूरी जानकारी प्राप्त करने को संप्राप्ति कहते हैं।इसके निम्न भेद हैं,
क)  संख्या - रोगों के भेद , यथा ज्वर आठ प्रकार के होते हैं, अतिसार के छ प्रकार माने जाते हैं।
ख) विकल्प - एकत्रित दोषों में को अधिक है कोन मद्यम ओर कोन दोषहीन दोषों के भागों की कल्पना को विकल्प कहते हैं।
ग) प्रधान/ अप्रधान - जो स्वतंत्र हो उसे प्रधान , जो अधीन हो उसे अप्रधान व्याधि कहते हैं।
घ) बल - व्याधि की सबलता ओर निर्बलता जिससे निश्चित की जाय वह बल संप्राप्ति है।
ड) काल - रात दिन, ऋतु भोजन, भक्षयन किय गए अन्नादी, के अवयव से दोष का प्रकोप होना व उस प्रकुपित दोष से पूर्व हुई व्याधि का कल जानना चाहिए।


अष्टविध   परीक्षा
शास्त्रों में रोग परीक्षा के आठ विधानों का वर्णन किया गया है, जिनको अष्टविध परीक्षा कहा जाता है। इसके निम्न प्रारूप हैं।
१ - स्पर्श परीक्षा
२ - शब्द परीक्षा
३ - आकृति ( चेहरे से रोग की पहचान) परीक्षा
४ - नेत्र परीक्षा
५ - जिह्वा परीक्षा
६ - मल परीक्षा
७ - मूत्र परीक्षा
८ - नाड़ी परीक्षा
इन प्रभागों में से आज हम जानेंगे स्पर्श परीक्षा यानी रोगी के शरीर की चमड़ी को छूकर रोगी को कोन सा दोष है यह पता करने को स्पर्श परीक्षा कहते हैं।
शरीर ठंडा हो और त्वचा खुरदुरी हो तो - वायु बड़ी हुए है।
शरीर  गरम हो, पर ज्वर ना हो तो - पित्त बड़ा हुआ है।
शरीर ठंडा हो, त्वचा चिपचिपी ओर चिकनी हो तो - कफ ब्दा हुआ है।
शरीर एकदम ठंडा, त्वचा सामान्य हो तो - शितांग सन्निपात।
शरीर आज की तरह धधक रहा हो, रोगी को लगे की जैसे वह आग की लपट से घिरा है , हो तो - अंतक शन्निपात।
शरीर में ज्वर हो, रोगी के पैर - हाथ गरम हों पर शरीर ठंडा हो तो - ऊष्मा पाणीपाद ज्वर।
अष्टविध परीक्षा में आज हमने जानने का प्रयास किया कि स्पर्श परीक्षा के कितने भाग हैं और उनको कैसे समझा जा सकता है।

नाड़ी परीक्षण के समय हम लोगों को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए ।
(१) नाड़ी की स्पन्दन संख्या
(२) नाड़ी की गति या समता
(३) नाड़ी का आयतन
(४) नाड़ी का बल
(५) नाड़ी की दृढ़ता
ऊर्ध्वगामी धमनी के मेहराब के खिलान में , अनामिका धमनी में , दाहिनीं अक्षकाघोवर्तनी थमनी या कक्षिका धमनी में अर्बुद हो जाने पर दाहीने हाथ की नाड़ी क्षीण हो जाती है ।
  अनुप्रस्थ वृहद धमनी , निम्नगामिनी वृहद धमनी , बायीं अक्षका घोवर्तिनी थमनी और वाये कक्षिका धमनी में अर्वुद होने पर बाये हाथ की नाड़ी क्षीण हो जाती है ।
दोनों हाथों की नाड़ी, यदि एक समान न हो कर एक में मोटी और एक में पतली रहे , घमनी की मेदाकर्षता हों जाये , थमनी में समवरोधन और रक्तखंड की वजह से नाड़ी में किसी तरह की रूकावट होने से ,चोट या अर्बुद होने से दबाव पड़ता है तो दोनों हाथ की नाड़ी एक समान नहीं रहती है ।
   प्रौढावस्था में एक स्वस्थ व्यक्ति की नाड़ी प्रतिमिनट ७० से ७५ बार होती है पुरुष की अपेक्षा स्त्री की नाड़ी कुछ अधिक होती है । बैठे रहने की अपेक्षा खड़े रहने पर नाड़ी की चाल बढ़ जाती है । व्यायाम करने अथवा नाचने पर नाड़ी की गति बढ़ जाती है । बच्चों में नाड़ी की गति अधिक होती है । बृद्धावस्था में नाड़ी की गति धट जाती है ।
नाड़ी की गति या समता ;-----
     हृत्पिंड के प्रथम शब्द के बाद नाड़ी कि स्पन्दन हो कर उसका कुछ देर के लिए विराम होता है इसके बाद पुन: प्रथम शब्द के बाद ही नाड़ी का स्पन्दन होता है । इस तरह से नाड़ी का स्पन्दन ओर विराम लगातार चलता रहता है । यदि नाड़ी की चाल या समता स्वभाविक रहती है तो प्रतिबार नाड़ी के स्पंदन की लहर समान भाव से उठती है और विराम भी समान होता है ।
  ---: द्विस्पंदित नाड़ी :--
जब हृत्पिंड के प्रत्येक स्वभाविक आकुंचन के बाद और भी एक प्रकार का आकुंचन होता है उसके बाद एक दीर्घ बिराम होता है लगातार दोबार उपर स्पंदन के बाद एक विराम होता है तो द्विस्पंदित नाड़ी कहते हैं ।
    ---: त्रिस्पंदित नाड़ी :---
हृतपिंड के स्वभाविक आकुंचन के बाद दो अतिरिक्त आकुंचन होने के बाद एक विराम होता है तो उसे नाड़ी का त्रिस्पंदन कहते हैं ।
    ---: सविराम नाड़ी :---
हृतपिंड का स्वभाविक आकुंचन होने के बाद बीच-बीच में रुक जाने पर सविराम  नाड़ी होती है ।
    --: परिवर्तन शील नाड़ी :-
हृत्पिंड के दुर्बलता के कारण स्पंदन नियमित होने के बाद भी स्पंदन शक्ति कम हो जाती है । ऐसा प्राय: वृद्धों में होता है ।
  --: विपरीत धर्मा नाड़ी :--
हृदयावरण प्रदाह की बीमारी में , जब दोनों हृदयावरण आपस में मिल जाते हैं । तो नाड़ी विपरीत धर्मा हों जाती है । अर्थात श्वास छोड़ने की अपेक्षा श्वास लेते समय नाड़ी का स्पन्दन क्षीण या लुप्त हो जाता है ।
  --: तीव्र क्रियाशील नाड़ी :---
इसमें नाड़ी तेज होती है इसका कारण हृदय रोग की अवस्था होती है
*  नाड़ी का आयतन *
प्रथानत: हृत्पिड के संकोच के समय बायें क्षेपक कोष्ठ से महाधमनी में गये रक्त के परिणाम के उपर नाड़ी का आयतन नाड़ी की स्थूलता सूक्ष्मता इत्यदि निर्भर करती है ।
     ---: नाड़ी का बल :---
नाड़ी का बल या रक्त दबाव हृतपिंड की संकोचन शक्ति पर बहुत कुछ निर्भर करता है । इसके अतिरिक्त हृत्पिंड के बायें ग्राहक कोष्ठ से महाथमनी में गये हुए रक्त के परिणाम तथा नाड़ी के गात्रावरण की अवस्था के उपर भी नाड़ी का बल बहुत कुछ अवलंबित होता है ।
 *नाड़ी की दृढ़ता या तनाव *
बहुत कुछ नाड़ी गात्र की स्थति ( स्थापकता गुण ) पर ही नाड़ी की दृढ़ता अर्थात नाड़ी की कठिनता , कोमलता निर्भर करती है । नाड़ी के उपर अंगुली रख कर नाड़ी के दो स्पंदनों के बीच के विराम के समय , नाड़ी के एक पार्श्व से दूसरे पार्श्व तक दबाव देकर नाड़ी की दृढ़ता का निर्णय किया जाता है । 

नाड़ी परीक्षण के समय हम लोगों को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए ।
(१) नाड़ी की स्पन्दन संख्या
(२) नाड़ी की गति या समता
(३) नाड़ी का आयतन
(४) नाड़ी का बल
(५) नाड़ी की दृढ़ता
ऊर्ध्वगामी धमनी के मेहराब के खिलान में , अनामिका धमनी में , दाहिनीं अक्षकाघोवर्तनी थमनी या कक्षिका धमनी में अर्बुद हो जाने पर दाहीने हाथ की नाड़ी क्षीण हो जाती है ।
  अनुप्रस्थ वृहद धमनी , निम्नगामिनी वृहद धमनी , बायीं अक्षका घोवर्तिनी थमनी और वाये कक्षिका धमनी में अर्वुद होने पर बाये हाथ की नाड़ी क्षीण हो जाती है ।
दोनों हाथों की नाड़ी, यदि एक समान न हो कर एक में मोटी और एक में पतली रहे , घमनी की मेदाकर्षता हों जाये , थमनी में समवरोधन और रक्तखंड की वजह से नाड़ी में किसी तरह की रूकावट होने से ,चोट या अर्बुद होने से दबाव पड़ता है तो दोनों हाथ की नाड़ी एक समान नहीं रहती है ।
   प्रौढावस्था में एक स्वस्थ व्यक्ति की नाड़ी प्रतिमिनट ७० से ७५ बार होती है पुरुष की अपेक्षा स्त्री की नाड़ी कुछ अधिक होती है । बैठे रहने की अपेक्षा खड़े रहने पर नाड़ी की चाल बढ़ जाती है । व्यायाम करने अथवा नाचने पर नाड़ी की गति बढ़ जाती है । बच्चों में नाड़ी की गति अधिक होती है । बृद्धावस्था में नाड़ी की गति धट जाती है ।
नाड़ी की गति या समता ;-----
     हृत्पिंड के प्रथम शब्द के बाद नाड़ी कि स्पन्दन हो कर उसका कुछ देर के लिए विराम होता है इसके बाद पुन: प्रथम शब्द के बाद ही नाड़ी का स्पन्दन होता है । इस तरह से नाड़ी का स्पन्दन ओर विराम लगातार चलता रहता है । यदि नाड़ी की चाल या समता स्वभाविक रहती है तो प्रतिबार नाड़ी के स्पंदन की लहर समान भाव से उठती है और विराम भी समान होता है ।
  ---: द्विस्पंदित नाड़ी :--
जब हृत्पिंड के प्रत्येक स्वभाविक आकुंचन के बाद और भी एक प्रकार का आकुंचन होता है उसके बाद एक दीर्घ बिराम होता है लगातार दोबार उपर स्पंदन के बाद एक विराम होता है तो द्विस्पंदित नाड़ी कहते हैं ।
    ---: त्रिस्पंदित नाड़ी :---
हृतपिंड के स्वभाविक आकुंचन के बाद दो अतिरिक्त आकुंचन होने के बाद एक विराम होता है तो उसे नाड़ी का त्रिस्पंदन कहते हैं ।
    ---: सविराम नाड़ी :---
हृतपिंड का स्वभाविक आकुंचन होने के बाद बीच-बीच में रुक जाने पर सविराम  नाड़ी होती है ।
    --: परिवर्तन शील नाड़ी :-
हृत्पिंड के दुर्बलता के कारण स्पंदन नियमित होने के बाद भी स्पंदन शक्ति कम हो जाती है । ऐसा प्राय: वृद्धों में होता है ।
  --: विपरीत धर्मा नाड़ी :--
हृदयावरण प्रदाह की बीमारी में , जब दोनों हृदयावरण आपस में मिल जाते हैं । तो नाड़ी विपरीत धर्मा हों जाती है । अर्थात श्वास छोड़ने की अपेक्षा श्वास लेते समय नाड़ी का स्पन्दन क्षीण या लुप्त हो जाता है ।
  --: तीव्र क्रियाशील नाड़ी :---
इसमें नाड़ी तेज होती है इसका कारण हृदय रोग की अवस्था होती है
*  नाड़ी का आयतन *
प्रथानत: हृत्पिड के संकोच के समय बायें क्षेपक कोष्ठ से महाधमनी में गये रक्त के परिणाम के उपर नाड़ी का आयतन नाड़ी की स्थूलता सूक्ष्मता इत्यदि निर्भर करती है ।
     ---: नाड़ी का बल :---
नाड़ी का बल या रक्त दबाव हृतपिंड की संकोचन शक्ति पर बहुत कुछ निर्भर करता है । इसके अतिरिक्त हृत्पिंड के बायें ग्राहक कोष्ठ से महाथमनी में गये हुए रक्त के परिणाम तथा नाड़ी के गात्रावरण की अवस्था के उपर भी नाड़ी का बल बहुत कुछ अवलंबित होता है ।
 *नाड़ी की दृढ़ता या तनाव *
बहुत कुछ नाड़ी गात्र की स्थति ( स्थापकता गुण ) पर ही नाड़ी की दृढ़ता अर्थात नाड़ी की कठिनता , कोमलता निर्भर करती है । नाड़ी के उपर अंगुली रख कर नाड़ी के दो स्पंदनों के बीच के विराम के समय , नाड़ी के एक पार्श्व से दूसरे पार्श्व तक दबाव देकर नाड़ी की दृढ़ता का निर्णय किया जाता है ।


---: नाड़ी परीक्षा से त्रिदोष का ज्ञान :--
नाड़ी में स्फुरण की अभिव्यक्ति होने के बाद त्रिदोष ( वात , पित्त , कफ ) का निर्णय होना आवश्यक होता है । क्यों कि इसी पर रोग का निर्णय और सम्पूर्ण चिकित्सा का क्रम निर्भर होता है ।
   आचार्यों ने त्रिदोष का शरीर में नाड़ी की जानकारी के लिए मणिबंध के नीचे तीन अंगुलियों से रेडियल आर्टरी पर ही नाड़ी देखने को प्रमुखता दिया है ।
 वात :--- वात रोग में वात प्रकुपित होने के कारण तर्जनी उंगली पर स्पर्श की अनुभूति अथिक होती है । स्फुरण सर्प या जोंक के समान होता है । अग्नि तत्त्व के साथ वायु तत्व का वात में प्रकोप होने पर सर्प के समान तिरछी तीव्र गति से नाड़ी चलती है । तथा जल तत्त्व के साथ होने पर नाड़ी जोंक के समान चलती है ।
पित्त ;--- वैद्य के मथ्यमा अंगुली पर रोगी की नाड़ी में पित्त की अनुभूति सर्वाधिक होती है । पित्त के प्रकोप में नाड़ी कुलींग ( गोरैया ) , कौवा , और मेंढक के समान उछल उछल कर चलती है । वायु तत्व के साथ पित्त की प्रधानता होने पर गौरैया और कौवे के समान , जल तत्त्व के साथ पित्त की प्रधानता होने पर मेढ़क के समान गति होती है ।
कफ :--- कफ की आथिकता का ज्ञान वैद्य की तीसरी उंगली अनामिका पर अधिक स्पष्ट होती है । कफ के प्रकोप में नाड़ी हंस और कबूतर के समान मंद सरल तैरती हुई चलती है । वायु तत्व के साथ कफ की प्रधानता होने पर हंस की गति एवं जल तत्त्व की प्रधानता होने पर कबूतर की गति होती है ।


द्विदोष कोप में नाड़ी की गति :---- दो दोषों के एक साथ कुपित होने पर पर्याय क्रम से दोनों दोषों की अलग अलग गति उनसे संबंधित उंगलियों पर प्रतीत होता है ।
दोनों दोषों में जो अथिक कुपित होगा उसकी गति अपेक्षा कृत अधिक स्पष्ट होती है । अलग-अलग दोषों की गति जान लेने पर मिश्रित दोष की गति जानना सरल होता है ।
वात-पित्त :--- वात पित्त में नाड़ी एक बार सर्प के समान वक्र गति और एक बार मेढ़क के समान उछल कर चलती है। इस तरह की गति में स्फुरणो की अनुभूति एक बार तर्जनी अंगुली पर पुनः एक बार मध्यमा अंगुली पर होती है । यह क्रम क्षण क्षण बदलते हुए चलता है इसमें भी जिसकी अधिकता होती है उसकी अनुभूति अथिक होती है । तीसरी अंगुली पर अनामिका पर नाड़ी स्फुरण अत्यंत दुर्बल होता है ।
वात - कफ :---- इसमें नाड़ी में स्फुरण सर्प के समान वक्र , तथा अनामिका अंगुली पर राजहंस के समान मन्द मन्द और सरल गति से अनुभुत होती है । ये गतियां पर्याय क्रम से या २-३ स्फुरण में लगातार एक गति फिर २-३ स्फुरण में लगातार दूसरी गति अनुभुत होती है । कभी कभी दोनों अंगुलियों पर एक साथ ही मंद, वक्र अनुभुत होती है । पित्त दुर्बल होने के कारण मध्यमा अंगुली पर स्फुरण अत्यंत दुर्बल प्रतीत होता है ।
पित्त -- कफ :--- इसमें वैद्य की मथ्यमा और अनामिका अंगुली पर नाड़ी के स्फुरण पर्याय क्रम से मेढ़क के समान उछाल तथा हंस के समान मंद एवं सरल गति से अनुभुत होते हैं । यह गति लगातार दो तीन स्फुरण तक ही अंगुली पर भी प्रतीत हो सकती है । पित्त कफ के प्रकोप में तर्जनी उंगली पर वात की अनुभूति दुर्बल प्रतीत   होती है ।
क्षीण दोष में गति :--- द्विदोष के प्रकोप वर्णन में मंद शब्द का तात्पर्य गति की मंदता से है । यह नाड़ी दोष से भरी हुई धीमी गति से चलती है ।
  इसी शब्द से मिलता जुलता शब्द  क्षीण हैं। जिसमें नाड़ी दोष से भरी हुई नहीं रहती है । इसमें स्फुरण की चाहें अधिक हो या कम हो पर पर दोष कम होता है । यहां तक की स्फुरण की अनुभूति में कठिनाई होती है ।


सभी मित्रों से सादर और सविनय अनुरोध है कि जो लोग सचमुच में नाड़ी का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं प्रात: उठ कर नित्य क्रिया से निवृत्त होकर कुछ योगासन , प्राणायाम , तथा ध्यान का नियमित अभ्यास करें । उसके बाद प्रतिदिन अपनी नाड़ी तथा तथा अपने दोस्त मित्र परिचितों तथा रोगियों की नाड़ी के देखने का अभ्यास प्रारंभ कर दें परन्तु अभी नाड़ी से संबंधित कोई निर्णय न बतायें । नाड़ी देखने के लिए काफी एकाग्रता , अभ्यास , अनुभव की आवश्यकता होती है । हमने आप सभी को अभी तक नाड़ी , नाड़ी देखने के स्थान ,  नाड़ी देखने का विधान , सावधानियां , नाड़ी देखने की विधि , त्रिदोष , प्रत्येक दोष में नाड़ी की गति इत्यदि के बारे में बता दिया है । समस्त विधान एवं विधि का पालन करते हुए अभ्यास आप सभी प्रारंभ कर दें । यदि किसी को कोई समस्या हो कुछ ना समझ में आ रहा  हो तो आप हमारे व्हाट्अप पर मैसेज कर  के पूछ सकते हैं समय निकाल कर  हम समय निकाल कर आप की समस्यायों का समाधान करने का प्रयास करेंगे ।

रस , रक्त , मांस , भेद , अस्थि  , मज्जा , शुक्र  ये सप्त धातुयें हैं । तथा पुरीष, मुत्र , स्वेद , नख , रोम , इत्यादि इन धातुओं के मल है । ये सभी दोषों के द्वारा दूषित होने के कारण दूष्य कहलाते हैं । यद्यपि सभी दूष्य वात पित्त कफ के द्वारा दूषित ह़ोते  है । परन्तु रस का कफ से , रक्त का पित्त से , अस्थि का वात से विशिष्ट और घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस लिए संबंधित दोष से विशिष्ट सम्बद्ध दूष्य विशेष दूषित होतै है । तद्अनुसार दूषित दूष्य में नाड़ी की गति भी परिलक्षित होती है । मेद और मज्जा कफ वर्गीय हैं इनके भी दुषित होने पर नाड़ी की गति कफवत परिलक्षित होती है । शास्त्रो में दूष्यों के प्रभाव में नाड़ी की गति इस प्रकार लिखा गया है ।
रस :--- वृद्ध रस संयुक्त नाड़ी । स्निग्थ होती है । यह नाड़ी कफ के सदृश होती है । जब भी कफ कुपित या विकृत होता है रस आवश्य दुषित होता है ।
रक्त :---- वृद्धरक्त युक्त नाड़ी उष्ण और गुरु (भारी ) चलती है। जब भी पित्त दूषित होता है तो रक्त आवश्य दुषित होता है । अतः रक्त के दूषित होने पर नाड़ी पित्त के समान चलती है ।
मांस :---- मांस के दूषित होने पर नाड़ी गम्भीर चलती है ।
मेद :--- मेद के दूषित होने पर नाड़ी कफवत चलतीं है।



अष्टविध परीक्षा परिचय ।। अष्टस्थान परीक्षा ।। परीक्षा विज्ञान ।। Rog Nidan

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